पिछले साप्ताहांत की बात है.. मैं अपने मित्रों के साथ बैठकर बातें कर रहे थे.. बातें होते-होते जाने कैसे शादियों पर बात होने लगी.. शायद इसका कारण यह रहा हो कि आजकल हर दूसरे-तीसरे दिन कहीं ना कहीं से किसी ना किसी कि शादी की खबर सुनने को मिल रही है.. प्रसंग आगे चलने पर दहेज पर भी बातें हुई.. मेरे एक मित्र, जो हम सभी मित्रों में अकेले हैं जो गांव से सीधा संबंध रखते हैं, ने अपना अनुभव सुनाया..

उसके मुताबिक जब वह अपने गांव गया था और उसकी शादी पर बात हुई तब उसने सबसे पहले साफ मना कर दिया की एक तो अभी शादी नहीं करनी है और दूसरी जब भी उसकी शादी होगी तब उसमें दहेज की कोई गुंजाईश ना हो.. इस पर उसके भाई की प्रतिक्रिया थी, “का भईया! पगला गईल बा का?” आगे उसने बताया की वह यह बात अपने सिर्फ अपने घर वालों से ही कहा था, उसका कहना था कि अगर वह अपने गांव के मित्रों के सामने यह बात कहता तो उनकी यही प्रतिक्रिया होती, “लईका के शहर के हवा लाग गईल बा..

मेरे मित्र के मुताबिक जब उसने पहली बार यह बात अपने घर में कही थी तब कोई भी उससे सहमत नहीं हुआ था.. मगर वही बात लगातार दोहराते जाने पर धीरे-धीरे उसके घर वाले भी सहमत होते जा रहे हैं.. विरोध का स्वर पहले जितना नहीं है..

क्या बदलाव ऐसे ही नहीं आते हैं धीरे-धीरे? बस जरूरत है इसकी पहल करने की.. स्वयं मेरे मित्र के शब्दों में, “अगर वह कभी अपने गांव से बाहर निकल कर बाहर की दुनिया नहीं देखता तो उसके विचार भी किसी और को देख कर यही रहता की लईका के शहर के हवा लाग गईल बा!!”

मुझे उसकी बात सुन कर मनोज तिवारी का एक गीत याद आ गया जो कुछ इस प्रकार था, “लईकी के शहर के लागल बा हवा.. औरी पढ़ावा!!” जिसके ऊपर मैंने यह शीर्षक रखा है..